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धूप  : पुं० [सं०√धूप (तपाना)+अच्] १. कोई ऐसा गंध द्रव्य या सुगंधित पदार्थ जलने पर सुगंधित धूआँ निकलता हो। जैसे—अगर, चन्दन का चूरा, लोबान आदि। २. देव-पूजन, वायु-शुद्धि, सुगंध-प्राप्ति आदि के लिए उक्त प्रकार के पदार्थों को जलाने पर उनमें से निकलने वाला सुगंधित धूआँ। मुहा०—धूप देना=उक्त उद्देश्यों की सिद्धि के लिए सुगंधित पदार्थ जलाना। ३. कई प्रकार के सुगंधित द्रव्यों को कूटकर कड़ी लेई के रूप में बनाया हुआ वह पदार्थ जो सुगंधित धुआँ उत्पन्न करने के लिए जलाने के काम आता है। पद—धूप-बत्ती। (देखें) क्रि० प्र०—जलाना। ४. चीड़ या धूप-सरल नामक वृक्ष जिसमें से गंधाबिरोजा निकलता है। स्त्री० [सं० धूपः, प्रा० धुप्पा,पा० पं० धुप्प] दिन के समय होनेवाला सूर्य का वह प्रकाश जिसमें गरमी या ताप भी होता है। आतप। घाम। मुहा०—धूप खाना या लेना=ऐसी स्थिति में होना कि शरीर पर धूप पड़े। शरीर में गरमाहट लाने के लिए धूप में बैठना। (किसी चीज को) धूप खिलाना, दिखाना या लगाना=कोई चीज ऐसी स्थिति में रखना कि उस पर धूप पड़े या लगे। जैसे—बरसात के बाद गरम कपड़ों को धूप खिलानी या दिखानी पड़ती है। धूप चढ़ना या निकलना=सूर्योदय होने पर प्रकाश का बढ़ना और फैलना। घाम निकलना। (किसी चीज पर) धूप पड़ना या लगना=सूर्य के प्रकाश में पहुँचने पर धूप के प्रभाव से युक्त होना। धूप में बाल या चूंड़ा सफेद करना=बिना कुछ अनुभव या जानकारी प्राप्त किये जीवन का बहुत-सा भाग बिता देना। (प्रायः नहिक या निषेधात्मक रूप में प्रयुक्त) जैसे—हमने धूप में बाल नहीं सफेद किये हैं, जो तुम्हारी इन बातों में आ जायँ।
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धूपक  : पुं० [सं०] धूप, अगरबत्ती आदि बनाने तथा बेचनेवाला।
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धूप-घड़ी  : स्त्री० [हिं० धूप+घड़ी] एक प्रकार का यंत्र, जिसमें बने हुए गोल चक्कर के बीच में गड़ी हुई कील की परछाईं से समय जाना जाता है।
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धूप-छाँह  : स्त्री० [हिं० धूप+छाँह] वह रंगीन कपड़ा, जिसमें एक ही स्थान पर कभी एक रंग और कभी दूसरा रंग दिखाई देता है। विशेष—जब किसी कपड़े का ताना एक रंग का और बाना दूसरे रंग का होता है, तब उसमें यह बात आ जाती है।
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धूपदान  : पुं० [सं० धूप-आधान] [स्त्री० अल्पा० धूपदानी] १. धूप नामक सुगंधित द्रव्य रखने का डिब्बा या बरतन। २. वह पात्र जिसमें धूप, राल आदि सुगंधित द्रव्य रखकर सुगंधित धूएँ के लिए जलाए जाते हैं। ३. वह पात्र जिसमें जलाने के लिए धूप-बत्ती खोंसी, रखी या लगाई जाती है।
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धूपदानी  : स्त्री० [हिं० धूपदान] छोटा धूपदान।
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धूपन  : पुं० सं०√धूप+ल्युट्—अन] [वि० धूपित] धूप आदि के धुएँ से सुवासित करने की क्रिया या भाव।
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धूपना  : अ० [सं० धूप्=गरम होना] किसी काम के लिए इधर-उधर आने-जाने में परेशान होना। जैसे—दौड़ना-धूपना। स० [सं० धूपन] सुगंधित धुएँ के लिए धूप या और कोई गंधद्रव्य जलाना।
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धूप-पात्र  : पुं० [ष० त०] १. धूप रखने का बरतन। २. दे० ‘धूप-दान’।
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धूप-बत्ती  : स्त्री० [हिं० धूप+बत्ती] मसाला लगी हुई सींक या बत्ती जिसे जलाने से सुगंधित धुआँ उठकर फैलता है।
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धूप-वास  : पुं० [तृ० त०] [भू० कृ० धूप-वासित] स्नान कर चुकने के बाद सुगंधित धुएँ से शरीर, बाल आदि बासने का कार्य।
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धूप-वासित  : भू० कृ० [तृ० त०] धूप आदि सुगंधित दृव्यों के धूएँ से बासा अर्थात सुगंधित किया हुआ।
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धूप-वृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] सलई या गुग्गुल का पेड़ जिसके गोंद से धूप आदि सुगंधित द्रव्य आदि बनाये जाते हैं।
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धूपायित  : वि० [सं०√धूप+आय्+क्त]=धूपित।
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धूपित  : वि० [सं०√धूप+क्त] १. धूप के सुगंधित धुएँ से सुवासित किया हुआ। धूप के धूएँ में बासा हुआ। २. दौड़ने-धूपने के कारण थका हुआ। शिथिल और श्रांत।
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